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'द नरेटिव फार कश्मीर'

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निकल रही थी मर्म वेदना ,करूण विकल कहानी सी।वहां अकेली प्रकृति सुन रही ,हंसती सी पहचानी सी।।         जय शंकर प्रसाद जी द्वारा रचित महाकाव्य की ये पंक्तियां कश्मीर क्रंदन को परिभाषित करती हैं।स्वतंत्र,संप्रभु,संवैधानिक,लोकतांत्रिक भारत में इतनी हैवानियत,इतनी बर्बरता,इतनी क्रूरता,इतना कत्लेआम नब्बे के दशक का यह नियोजित नरसंहार न केवल उन्मादी मजहब को बल्कि मानवता को भी कलंकित करता है लज्जित करता है और पूंछता है भारत!मानवाधिकार जमींदोज हो गया था क्या?तत्कालीन सरकारें राजधर्म से परे कौन से धर्म में रत रहीं?विपक्ष गांधी जी की बुराई संबधी शिक्षाओं को अक्षरशः चरितार्थ कर रहा था क्या?सच को दफन करने की  कोशिश किसने की ?प्रधानमंत्री राजीव गांधी और  धर्मनिरपेक्ष की तख्ती टांगने वालों के अतिशय प्रिय फारूक अब्दुला के मुख्यमंत्रित्व काल खंड में ही कश्मीरी अल्पसंख्यकों (हिन्दुओं) पर दमनकारी नीतियां परिलक्षित हो चुकी थी,बाद इसके दिल्ली का ताज बदला लेकिन दिल नहीं निजाम बदला लेकिन ताम-झाम नहीं।जानना जरूरी है कि आजादी के समय कश्मीर में हिन्दुओं की आबादी लगभग 15% थी ...

आधी आबादी के प्रति पूरी आबादी को सादर समर्पित।

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 दुर्भाग्य से आज भी माहवारी(एम सी)शब्द हया और अपवित्रता से जोड़ा जाता है जबकि माहवारी शर्म नही सेहत की बात है अपवित्रता नहीं वजूद की बात है भला वजूद का मूल कारक अपवित्र कैसे हो सकता है?जीवन की हेतु जन्मदात्री मां के मातृत्व का पहला सोपान भावी मां होती है,अस्तु मासिक धर्म ही प्राकृतिक धर्म है भावी खुशियों और समाज की निरन्तरता को बनाए रखने के लिए ।जरा सोंचिए!बहन -बेटी में मासिक धर्म की निरन्तरता में बाधा क्या स्वास्थ्य और चिंता का विषय नहीं है ?हम न भूलें यह शारीरिक विकास और परिवर्तन की दैवीय प्रक्रिया है तो फिर यक्ष प्रश्न यह है कि फिर इसको शर्म-झिझक और अपवित्रता का विषय बनाना कितना तार्किक है?कितना न्यायसंगत है?जबकि धर्म स्वयं में पवित्रता का बोधक है।सैनेटरी पैड की खरीददारी आज भी संकोचित और संकुचित है।जरा सोचिए स्वास्थ्य के लिए अति आवश्यक खरीद पर कैसी विडंबना है!कितना चिंतनीय विषय है?आज भी पैड की खरीददारी का प्रतिशत बहुत कम है जरूरत है नजरिए में बदलाव की गरिमामय स्वीकृत की।बच्चों से खुलकर बातें करें और उनको जागरूक करें।बेटियां जब पहली बार इस धर्म का पालन करे तो उनम...