'द नरेटिव फार कश्मीर'

निकल रही थी मर्म वेदना ,करूण विकल कहानी सी।वहां अकेली प्रकृति सुन रही ,हंसती सी पहचानी सी।।
        जय शंकर प्रसाद जी द्वारा रचित महाकाव्य की ये पंक्तियां कश्मीर क्रंदन को परिभाषित करती हैं।स्वतंत्र,संप्रभु,संवैधानिक,लोकतांत्रिक भारत में इतनी हैवानियत,इतनी बर्बरता,इतनी क्रूरता,इतना कत्लेआम नब्बे के दशक का यह नियोजित नरसंहार न केवल उन्मादी मजहब को बल्कि मानवता को भी कलंकित करता है लज्जित करता है और पूंछता है भारत!मानवाधिकार जमींदोज हो गया था क्या?तत्कालीन सरकारें राजधर्म से परे कौन से धर्म में रत रहीं?विपक्ष गांधी जी की बुराई संबधी शिक्षाओं को अक्षरशः चरितार्थ कर रहा था क्या?सच को दफन करने की  कोशिश किसने की ?प्रधानमंत्री राजीव गांधी और  धर्मनिरपेक्ष की तख्ती टांगने वालों के अतिशय प्रिय फारूक अब्दुला के मुख्यमंत्रित्व काल खंड में ही कश्मीरी अल्पसंख्यकों (हिन्दुओं) पर दमनकारी नीतियां परिलक्षित हो चुकी थी,बाद इसके दिल्ली का ताज बदला लेकिन दिल नहीं निजाम बदला लेकिन ताम-झाम नहीं।जानना जरूरी है कि आजादी के समय कश्मीर में हिन्दुओं की आबादी लगभग 15% थी जो अस्सी के दशक में 5% पर आ गई। 1989-90 तो चरमपंथ का चरम था आतंक की फैक्ट्री पाकिस्तान में दशकों से प्रशिक्षण ले रहे आतंकी सभी अब्बाजान की ख्वाहिश मुक्कमल करने के वास्ते हैवानियत की दास्तान का बिस्मिल्लाह कर चुके थे सैय्यद सलाउद्दीन,यासिन मलिक की अगुवाई में।मजहब के नाम पर कश्मीर की आवाम अलग करने का कारनामा हमाम हो चुका था तमाम इस्लामिक संगठन,आतंकी संगठन बनकर दहशत,दरिन्दगी,बेहयाई,और कत्लेआम वाले 'जेहाद' के संचालक बन गए। हिन्दू नेताओं की चुन-चुन कर हत्या जेहाद के वजूद का परिचायक बन गया था,इतना ही नहीं जेहाद की हद का मुकाबला मानों शुरू था जो जितना क्रूर जो जितना हत्यारा वो उतना बड़ा जेहादी।'रलीव,चलीव,गलीव' का फरमान जारी कर दिया गया जिसका मतलब था 'मतांतरित हो जाओ या घाटी छोड़ जाओ या फिर मर जाओ' इतना ही नहीं जेहादी कारनामों ने यह कहकर कि "कश्मीरी हिन्दू (पीड़ित) स्वयं तो चले जांए लेकिन अपनी औरतों को यहीं छोड़ जाएं" महिलाओं के प्रति अपने नीच नजरिए  में एक और अमिट अध्याय जोड़ दिया जेहादी सोंच में।गौरतलब है कि जेहादी मंसूबों के वास्ते सशत्र सहयोग पड़ोसी पाकिस्तान कर रहा था सरकार और सरकारी मशीनरी न कुछ देखना चाहती थी न कुछ सुनना चाहती थी,गैर मुस्लिमों में ताल-मेल तो था लेकिन लड़ने के लिए न हथियार थे और न ही संगठनात्मक शक्ति बनने का अवसर था एवं वक्ती हालात ऐसे थे कि गैर मुस्लिमों की सीधी लड़ाई सरकार से थी अस्तु हिन्दू (पीड़ित सभी ) विकल्प विहीन थे।ऐसा नही कि वो साहसी नहीं थे तमाम दिनों तक फरमान का विरोध करना,यातनाएं सहना व उनके बलिदान उनके साहस की परिचायक हैं जबकि हिंसक खूनी जेहाद के मुकाबले उनकी अहिंसक और आग्रह वाली जिद कहां तक ठहरती?हास्यास्पद यह है कि भारतीय सामाजिक सुरक्षा संबंधी कानून व मानवीय अधिकारों की सार्वदेशिक घोषणा सियासी जेबों से तार-तार अस्मत को मासूमों और निर्दोषों के कत्लेआम को निहारकर छाती चौड़ी कर रहे थे।जरा सोचिए!कश्मीरी पंडितों और पीड़ितों के विवशता वाले पलायन को पलायन जनित उनकी अनसुनी पीड़ा और मर्म वेदना के बारे में सोंचिए!भूख -प्यास और दूषित परिवेश की भेंट इलाज से परे बीमारियों के बारे में सोंचिए!न जाने कितने मासूम और जर्जर शरीर काल का ग्रास बन गए तब प्रश्न यह है कि 'सामाजिक सुरक्षा कानूनों' और मानवीय अधिकारों की सार्वदेशिक घोषणा को कोई भुक्तभोगी अचार डाले क्या?ओढ़े या बिछाए ?या फिर औंधे मुंह कड़ी निन्दा करे?बड़ी बात यह है कि उन्हे अभी तक वह भी नहीं मिला जिसे छीना गया,न घर मिला न रोजगार और न अन्य अधिकार।राजनैतिक विषय वस्तु बन कर मिली है बड़ी बहस और बड़े वादे।सच का जूता अभी तक फीते बांध रहा है जबकि झूठ वाला जूता न केवल दुनिया की सैर कर आया बल्कि घूम-घूम के जागरूक लेकिन मूक दर्शकों को दशकों से पीट रहा है,कुम्भकर्णी नींद ग्रस्त जन मानस को तो आभास भी नहीं।
       बहुचर्चित फिल्म 'द कश्मीर फाइल्स ' हैवानियत की हदों के पार घटना की विवेचना मात्र है,नियोजित नरसंहार का आंशिक अनावरण मात्र है 'द कश्मीर फाइल्स'।चरमपंथी,आतंकवाद,अलगाववाद,के पर्याय खौफनाक जेहाद के नापाक मंसूबे भारत के टुकड़े,अलग कश्मीर या पाक विलय रहा होगा लेकिन 'गिरिजा टिक्कू' के टुकड़े?घाटी में पसरा मातम ?बर्बरता और हैवानियत ऐसी कि सोंचकर कोई सिहर जाए,अवाक,स्तब्ध रह जाए !कलम न लिखने को गिड़गिड़ाए।क्रोध और आक्रोश के न केवल स्रोत में अंतर है बल्कि अंतस में अंतर है,आक्रोश अभिनन्दनीय है जबकि क्रोध का जायज होना जरूरी नहीं अस्तु आक्रोशित भाव में कलम की अधिकता व न्यूनता क्षम्य है।वास्तव में बहुप्रचलित शब्द 'नरेटिव' किसी घटना को अपने स्वार्थ और स्वादानुसार देखने का नजरिया और प्रस्तुतीकरण की कला है।'नरेटिव' सापेक्षिक है सापेक्ष वह है जो स्थिर नहीं सैद्धांतिक नहीं मतलब 'नरेटिव' एक तरह से सत्य से सुदूर तार्किक वर्णन और अफसाना होता है,यह मनगढ़ंत खाता है जिसमें मनोरथ रूपी पूंजी जमा की जाती है राजनैतिक,सांप्रदायिक,मजहबी खाता धारकों द्वारा।इन्ही 'नरेटिवों' ने अब तक भारतीय  सभ्यता,संस्कृति,बौद्धिकता और इतिहास का अपूर्णनीय नुकसान किया है।आपको हैरानी होनी चाहिए इसी 'नरेटिव' ने दहकते,सुलगते,जलते,मरते-मारते कश्मीर और दमनकारी,कुठाराघाती जेहाद को आवरण में ढक रखा है,सच को दफन किया इसी नामुराद 'नरेटिव' ने।आगे ऐसा न हो यह सभी भारतीयों की जिम्मेदारी है------जय हिन्द! जय भारत!

Comments

  1. अत्यंत मार्मिक है यह कश्मीर के पंडितो की दर्दनाक कहानी, कलेजे को तार तार कर देने वाला कश्मीरी पंडितो का यह समय कैसे व्यतीत हुआ होगा, यह सोच कर रोम रोम थराता है, इस समय की सरकार की हार्दिक मंशा क्या थी, यह समझ नहीं आता, और हमारे भारतीय जनमानस की पीड़ा और हमारा समाज ही इस दर्दनाक दास्तां से बेखबर था, या ये कहें कि इस पीड़ा को अपना दर्द नहीं समझा भारत वासियों ने

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    1. जी धन्यवाद आपने न केवल पढ़ा बल्कि अध्ययन भी किया,आपको संवावाद ज्ञापित करते हैं।विचारणीय यह है की बहुसंख्यक ,अल्पसंख्यक से कितनी आत्मीयता रखते हैं यह परवरिश, सभ्यता और संस्कार और संस्कृति पर निर्भर करता है और इन सबका संबंध श्रेष्ठतम धर्म परायणता से है।

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  2. बेहद मर्मस्पर्शी विषय पर पूरी साफगोई से प्रकाश डाला है आपने. कश्मीर फाइल्स की फाइल खोलने पर आपको साधुवाद.

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    1. जी गुरू जी धन्यवाद 🙏 आपके अध्ययन ने ब्लाग/लेख को सार्थक बना दिया है।

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