'प्रार्थना'
तमाम रीति-रिवाज, धार्मिक अनुष्ठानों और संस्कारों सहित भारतीय संस्कृति देश -दुनिया को मार्गदर्शित करती है,अनुसंधान भी विधान की उपज होते हैं,वैसे तो 'हरि अनंत हरि कथा अनंता' तमाम माध्यम हैं परमात्मा से संवाद अनुभूति के लेकिन स्वयं भगवान भी ' प्रार्थना ' के कल्याणकारी बंधन से बंधे हैं। चूंकि ' प्रार्थना ' का संबंध आत्मा से है और आत्मा का परमात्मा से।'प्रार्थना' की नैसर्गिक शक्ति अतुल्य,अपरिमित है, असीमित है,अद्भुत है।उपमा विहीन विधान है 'प्रार्थना', 'प्रार्थना' के सम केवल परमात्मा है।उर की अरदास है ' प्रार्थना ' हृदय की आकुल पुकार है ' प्रार्थना ' वेद, शास्त्र,पुराण,महाकाव्य के सभी दृष्टांत साक्षी हैं,प्रमाण हैं दिग-दिगंत और काल खंड, सृष्टि की मूलाधार है ' प्रार्थना '।यह परिष्कार और परिमार्जन की उत्तमोत्तम प्रक्रिया है, अपने आराध्य से सीधा संवाद कराने में सक्षम है विशुद्ध ' प्रार्थना '। दार्शनिकों का दर्शन भी ' प्रार्थना ' केंद्रित है,भगवान के मनन,चिंतन और अनुभव को ' प्रार्थना ' के रूप में लगभग परिभाषित किया जा सकता है,दार्शनिकता इसका एक सोपान है, राग-द्वेष मुक्त अंत:करण से परम की कामना ' प्रार्थना ' है।हमारी विकट चूक यह है कि कि परम की नहीं अल्प की चाहत पर ठहर जाते हैं, मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा की चाहत ' प्रार्थना ' नहीं वासना है। धन-धान्य,संतान की कामना ऐषणा है, पुत्र कामना पुत्रेषणा,वित्त कामना वित्तैषणा,और लौकिक कामना लोकैषणा कहलाती है,इन ऐषणाओं के शमनोपरान्त परम ' प्रार्थना ' का श्रीगणेश होता है जोकि हम जनसामान्य के लिए असंभव तो नहीं लेकिन दुर्लभ जरुर है।वास्तव में ' प्रार्थना ' की सार्थकता परहित निहितार्थ होती है,ऐसी ' प्रार्थना ' में देने का भाव प्रबल होता है और चूंकि देने वाला देवता होता है अस्तु परहित और 'सर्वे भवन्तु सुखिन:' के लिए की गयी ' प्रार्थना ' का देवत्व से परिपूर्ण होना स्वाभाविक है।गरीब, शोषित, पीड़ित, वंचित और जरुरतमंद की सेवा परम धर्म है लेकिन उनके लिए ' प्रार्थना ' परम धर्म से भी श्रेष्ठ है। परमसत्ता ईश्वर शरणागत होकर लघुता को विशालता तुच्छता को महानता में बदल देने के उत्कण्ठा,नर को नारायण,पुरुष को पुरुषोत्तम बनाने के संकल्प से ' प्रार्थना ' का सूत्रपात होता है।प्राणि मात्र से असाध्य मुसीबत के संदर्भ में कल्याणकारी मनोरथ में ' प्रार्थना ' मात्र विकल्प है 'सर्वे भवन्तु सुखिन:' परम प्रार्थना है,'प्रार्थना' किसी एक के लिए,अनेक के लिए या फिर समूह विशेष के लिए की जा सकती है।' प्रार्थना ' में हांथ खोलने की नहीं वरन हृदय खोलने की जरूरत होती है,धनबल ,बाहुबल नहीं आत्मबल और वैचारिक संपदा काम आती है, विशुद्ध मन और शुद्ध आत्मा अपरिहार्य है ' प्रार्थना ' फलीभूत होने के लिए। लौकिक व्यवहार में हम जिसे ' प्रार्थना ' समझते हैं वास्तव में वह याचना है,निवेदन है और करने वाला प्रार्थी नहीं याची है,निवेदक है।प्राणि मात्र कल्याण के लिए 'प्रार्थना ' प्राणि धर्म है,प्राणि श्रेष्ठ मनुष्य से यह धर्म निर्वाहन आग्रह की विषयवस्तु है, उपासना,मौन व्रत, मंत्रोच्चार पद्धति में भी 'प्रार्थना' के लिए, एकाग्रता, शांत-चित्त,ईश्वरीय परमानंद अनुभूति और मंंगल कामना प्रार्थनीय है स्वयं 'प्रार्थना' के मुखारविंद से। शरणागत भाव से कामना और अभ्यर्थना में जब याचना शून्य हो जाए तो शेष रह जाती है 'प्रार्थना'।जो कार्य शरीर व मस्तिष्क से करने योग्य हैं उनके करने में संकोच नहीं करना चाहिए,आलस नहीं करना चाहिए उन्हें तन्मयता से सहर्ष पूरी शक्ति से करना ही चाहिए। हमें ईश्वर से हमारी योग्यता को जागृत करने की,निज धर्म निर्वाहन की, मानवीय मूल्यों के प्रति निष्ठावान रहने की,सार्थक जीवन की,आत्मबोध की कामना वाली अभ्यर्थना करनी चाहिए ताकि वह 'प्रार्थना' बनकर ईश्वरीय कृपा स्वरूप बरस जाए। लघुुुुता द्वारा पूर्णता से शरणागत होकर आदर भाव से अनुग्रह निहित आत्मीय वार्तालाप है प्रार्थना,निर्बल की करूण पुकार है, निराश मन की तलाश है,परवशता का ईश्वरीय चरणों में अर्पण है,सर्वसुलभ शांति प्रदायक है,कल्याणकारक है प्रार्थना।_______________________
"मति अति नीच ऊॅंचि रूचि आछी" समझकर इस आलेख में न्यूनता और अधिकता क्षम्य है। ईश्वर प्रतीक्षा कर रहा है हमारी हम प्रार्थना करें तो सही।
अभ्यनार्थ 🙏
नरेन्द्र नाथ त्रिपाठी
नरेन्द्र नाथ त्रिपाठी जी सकारात्मकता वह विधा है जो ख़राब से ख़राब स्थिति को भी अच्छी दृष्टि देती है और अनहोनी को होनी में बदल सकती है। प्रार्थना अद्भुत शक्ति है जो जीवात्मा की दशा वा दिशा दोनों बदल सकती है। प्रार्थना का स्वरूप ऐसा है कि वह न केवल प्रेमी को पवित्र करती है अपितु प्रेमास्पद के बारे में भी उसकी धारणा परिवर्तित कर देती है और यह रूपांतरण निम्नतम से उचत्तम सीढ़ी की ओर होता है यही प्रार्थना का सौन्दर्य है।
ReplyDeleteप्रार्थना वह अनमोल क्षण है जब आपका विराट से मिलन होता है। हृदय की आकुल पुकार जब विषयासक्ति और भोगासक्ति की बिसर्जना हो जाती है और मन वाणी और शरीर का तादात्म्य हो जाता है। मन इतना बलशाली हो जाता है कि वह अपनी सूक्ष्म शक्तियों का विकीर्णन करता है और परमात्मा से एकाकार हो जाता है और प्रार्थना आपको परिष्कृत कर देती है । प्रार्थना दो तरह की होती है सकाम और निष्काम अर्थात यदि निहितार्थ ऐषणा से कोई संबंध हो तो सकाम और अगर एकालाप सिर्फ़ परमात्मा के लिए हो तो निष्काम। प्रार्थना हमारी ऊर्जा को विधायक कर देती है और हमारी मांग पूरी करने की राह में संकल्प के विकास से हम वो पूरी कर लेते हैं यदि यह क्रम चलता रहे और हमारी मांग पूरी न हो तो हो सकता है कि हमारे आग्रह ही खत्म हो जाएं और हमारा निग्रह हो जाए तब जो रहेगा वह प्रार्थना का शरीर आर्थात हम ही प्रार्थना हो जाएंगे।
आपके आवश्यक संवाद संप्रेषण ने संबंधित विषयालेख को और अधिक सार्थकता प्रदान करके हमको प्रेरित किया है 🙏
ReplyDelete