'कट्टरता आत्मघाती है ?'

 गलत-सही के फर्क से परे दुनिया में लोगों को स्वदेश हितार्थ उसकी वैश्विक नीतियों के साथ,उसके फैसलों के साथ समर्पित भाव से खड़े होते हुए भी आज दुनिया ही देख रही है,लेकिन हमारे स्वदेश भारत में क्या हो रहा है ? जबकि हमारा सौभाग्य यह है कि हमारा देश गलत -सही के फर्क को न केवल समझता है बल्कि सही के साथ यथासंभव खड़े होने की सामर्थ्य भी जुटाता है और गलत के प्रतिकार का साहस भी,तो फिर यहां पर आतंक और दहशत को सरमाथे लगाने वालों को बदनसीब कहिएगा या फिर देश का दुर्भाग्य ? हराम से मोहब्बत और इंसानियत से तौबा की कवायद का हश्र क्या होगा ?अंजाम-ऐ नफरत से हासिल क्या होगा ? गैरों (राष्ट्र विरोधी मंसूबों) पर रहम और अपनों पर सितम क्यों ? कारनामें सभी न तो भगवान को स्वीकार्य हैं न ही खुदा को मंजूर !असल में हमारी खुशी के लिए ही 'नियंता' (परम सत्ता) ने स्वयं को अनेकानेक नामों में बंटने दिया,लेकिन जरा सोंचिए!इंसान(हम) ही बंटकर बिखरने लगे तो ? सारगर्भित आशय यह है कि इंसानियत को बख्श दिया जाए,उस पर रत्ती भर भी खरोंच न आने की जिम्मेदारी ही सभी धर्मों का असल धर्म है।
                   साम्प्रदायिक हिंसक जानलेवा दंगों के कारण खोजने पर एक तो बहुत कुछ मिलेगा नहीं बल्कि जो मिलेगा भी उसके उपहासिक होने की संभावनाएं प्रबल होंगीं।एक गैर जरूरी उन्मादी चीज जरूर मिलेगी जिसे 'कट्टरता' कह सकते हैं।तो जरूरी और प्रासंगिक यह है कि 'कट्टरता' नाम की बला को समझा जाए! वैसे तो कट्टरता का मतलब अमुक के प्रति बिना किन्तु -परन्तु के पूर्ण विश्वास करना और उस विश्वास का विज्ञापन प्रतिनिधि बनकर अन्य सभी पर थोपने की कोशिश करना,कहीं न कहीं 'कट्टरता' अनुभूति की नहीं प्रदर्शन की विषय वस्तु सिद्ध होती है,बहुत जोखिम और साहस के साथ यह कहना चाहते हैं कि 'कट्टरता' स्वयं में अभिशप्त इसलिए है कि यह हेल -मेल कम और बैर अधिक कराती है,वैमनस्यता को आमंत्रित करती है,विवेक पर आघात करती है,मानवीय मूल्यों का क्षय करती है और अपने विद्रूप रूप में जघन्य,नृशंस अपराध की कारक भी बनती है।सारगर्भित सदाशय यह है कि 'कट्टरता' आदरणीय नहीं हो सकती,वह जड़ता की पोषक हो सकती है लेकिन नवीनता की उन्नायक नहीं।गहन अध्ययन सुस्पष्ट करता है कि 'कट्टरता' भय का परिचायक है,कमजोरी का प्रतीक है,चूंकि जिसको अमुक के समाप्त होने का भय होगा उसके लिए वह कट्टर होने की कोशिश करेगा,जो कमजोर होगा वह अपेक्षाकृत अधिक दिखावा करेगा,कभी कभी सस्ती लोकप्रियता की लालसा भी 'कट्टरता' की नाटकीयता का कारण होती है,विविध वर्गों की अपनी -अपनी दुकानें हैं उनको चलाने के लिए 'कट्टरता' की चासनी जरूरी हो जाती है,लेकिन साक्षी हैं दिग,दिगन्त और साक्षी है इतिहास मिट ही जाती है 'कट्टरता' की विषय वस्तु या सीमित रह जाती है हद,धर्म,संप्रदाय और जाति के परिपेक्ष्य में 'कट्टरता' न केवल गैर जरूरी है बल्कि विध्वंस कारक विष है,फिर भी 'कट्टरता' के सभी समर्थकों से आग्रह है कि इंसानियत कि लिए कट्टर बनिए मतलब कट्टर इंसान बनिए।
         आत्मघाती इसलिए भी है कि इसकी प्रकृति सापेक्षिक है मतलब देश-काल-परिस्थित के हिसाब से यह 'कट्टरता' अपना किरदार खोज ही लेती है,अन्यथा वह देश जहां कोई अल्पसंख्यक नहीं है वहां तो सर्वत्र शान्ति और अमन होनी चाहिए लेकिन ऐसा नहीं है।चूंकि फिर यह जातिगत हो जाती है,जातीय संघर्ष की वाहक सिद्ध होती है,वैचारिक रूप से दर्शन और सिद्धान्तों में परिलक्षित होने लगती है,किसी एक ही भाषा को मानना और मान्यता देना और अन्य कई उपेक्षा भाषायी 'कट्टरता' का रूप ले सकती है।कुल मिलाकर यह 'कट्टरता' एक मानसिक अवसाद है,मनोविकार है द्वंद है जोकि विध्वंसक है,आत्मघाती है अस्तु केवल और केवल त्याज्य है,विशुद्ध रूप से चिमटे से भी न छूने के काबिल है।

Comments

Popular posts from this blog

'प्रार्थना'

करूणा