"फैसला आन दि स्पाट" की खुशी में कहीं गम का अश्क हलाल हुआ तो नहीं
न्याय प्रणाली में व्याप्त न्यायिक प्रक्रिया की अति शिथिलता मय विधि हथकंडे आज त्वरित प्रभावी सुधार के लिए याचक है माननीय ईश्वर तुल्य न्याय के समक्ष, भारतीय दंड संहिता अनेकानेक बार स्वयं को ठगा समझने लगती होगी अपराधिक महातंत्र के सम्मुख| ऐसा नहीं है कि ऐसे सुधार के मांग की कमी है लेकिन पूर्ति नहीं हो पा रही है यह अपरिभाषित सच है,मांग और पूर्ति का अनुपात राज दर्पण की अप्रिय तस्वीर का दर्शन करवाता है जो तमाम विसंगतियों को गले लगाता है, हमारा संविधान संवेदनाओं से ओत-प्रोत है|विशुद्ध जन भावनाओं का यथायोग्य ध्यान और प्रभावी संज्ञान राज-काज की रीढ़ है,इन जरूरत मय भावनाओं की अधिक उपेक्षा में जनाक्रोश का मूलाधार निहित होता है|नीति नियंताओं से अपेक्षा यह होती है कि वे जन भावनाओं की कद्र तब जरूर करें जब वो देश व्यापी जनाक्रोश में रूपांतरित हो रही हों|
हैदराबाद के वीभत्स दुष्कर्म कांड के बाद जन भावनाओं का जनाक्रोश रुप देश -दुनिया देख रही है,यही जन भावनाएं सवाल दाग रही हैं कि 'निर्भया' के गुनहगारों का क्या हुआ अब तक? सात वर्ष बीत गए क्या उम्र बीतने का इंतजार हो रहा है?उन्नाव का उल्लेख प्रासंगिक है,यही जन भावनाएं सवाल करती हैं हर अपराध और दंड विधान पर,रोज-दिन के दर्ज और गैर दर्ज अपराध पर जन भावनाएं उबलती हैं लेकिन उनको नियंत्रित करती है कानून-व्यवस्था और संतुष्ट करती है माननीय न्याय पालिका, माननीय न्यायालय| आहत जन भावनाओं से व्युत्पन्न जनाक्रोश के लिए क्या हमारी न्याय व्यवस्था आंशिक ही सही दोषी नहीं है? हमारे नीति-नियंता दोषी नहीं हैं? पुलिस को कानून हांथ में लेने का जनसमर्थन क्यों मिलता है? क्या यह व्यवस्था की विफलता नहीं है?क्या यह पुलिसिया न्याय व्यवस्था की पोषक है ?"फैसला आन दि स्पाट" की खुशी में कहीं गम का अश्क हलाल हुआ तो नहीं?
क्षीण होती नैतिकता पर कितनी चर्चाएं होती हैं समाज में? नैतिक जिम्मेवारियों के निर्वाहन में हमारी भूमिका का आनुपातिक प्रतिशत कितना है? संचारी तकनीक से उपजी अश्लीलता पर अंकुश लगाएगा कौन?
नरेन्द्र नाथ त्रिपाठी
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