#गरीबी #आरक्षण और #शिक्षा
चूंकि आरक्षण की व्यवस्था का आधारभूत कारक सभी भारतीयों में समानता लाने की कोशिश ही रही होगी!जोकि पूर्ण असफल रही अब तक।इसकी जग-जाहिर असफलता पर भारतीय नेतागिरी बनाम मठाधीशी को गर्व भी है,क्यों न हो?आखिरकार ७० वर्षों की कड़ी मेहनत जो ठहरी।सही बात तो यह है कि भारतीय सियासत ने शब्द #गरीबी का पेटेंट करवा लिया है विश्व स्तर पर स्वयं के लिए।संवेदनशील सियासी हथियार बना लिया है जबकि मजे की बात यह भी है कि अब तक #गरीबी की परिभाषा भी ढंग से गढ़ी नही जा सकी। माना जाता है कि शिक्षा ऐसा तूफान है जो अपने साथ तमाम बुराइयों को बहा ले जाता है, कुरीतियों और आडंबरों पर बल भर प्रहार करती है शिक्षा जबकि एक दृष्टांत देखिए व्यहार में जो जितना पढ़ा-लिखा जितना शिक्षित हैं वह उतना अधिक मंहगा है वर हेतु मतलब बड़ा दहेजू बकरा,इतना ही नहीं संस्कारों की बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती तथाकथित अधिक पढ़ी-लिखी बिरादरी से,गरीबी से गरीबों के लिए नहीं लड़ती यह बहुत बड़ी पढ़ी -लिखी संपन्न बिरादरी वरन स्वयं को अर्थ युग में प्रतिस्थापित करने के लिए लड़ती है येन-केन-प्रकारेण के स्तर पर,दूसरा पहलू भी देखिए जिस शिक्षा को बुराई से लड़ने का माध्यम मान लिया गया है उसकी दुकानें इतनी बड़ी हैं कि जन सामान्य की पंहुच से दूर हैं,मतलब रोज-मर्रा की जीवनोपयोगी जरूरतों में यही शिक्षा रूपी सामान ही बहुत मंहगी हो गयी है जबकि है मूल्यवान यह अलग बात है। तो कहीं न कहीं हम शिक्षा के प्रतिमान गढ़ने में चूक रहे हैं और सुलभता भी अध्ययन की विषय वस्तु है।
आते हैं फिर मूल विषय #आरक्षण पर तो सवर्णों को श्रेष्ठ और सक्षम मान लिया गया,और उनसे बराबरी के लिए #आरक्षण का प्राविधान सीमित समय के लिए किया गया,जबकि सीमित अब असीमित हो गया।जऱा सोचिए सवर्णों का १०% आरक्षण मूल उद्देश्य 'समानता' में कितनी विषमता को जन्म देगा।जरूरत थी देय आरक्षण में १०% कमी करने की न कि १०% देने की।पात्रता में मानक निर्धारित करने की।गरीब,गरीब होता है सवर्ण और गैर सवर्ण नही होता।नजारा बदलने के लिए नजरिया बदलना होगा।चिकित्सा और शिक्षा में आरक्षण आत्महंता का परिचायक है।अस्तु चिकित्सा और शिक्षा मेंआरक्षण को दूर रखकर जरूरी ही हो तो केवल और केवल गरीब को आरक्षण की व्यवस्था का विधान किया जाय और चुनाव आयोग की तरह तटस्थ #गरीबआयोग का संविधान सम्मत गठन किया जाय।वर्ण व्यवस्था का आधार कर्म है जिसे जबरन जातीय समीकरण में रुपान्तरित किया गया देश -काल -परिस्थिति के अनुकूल स्वार्थ सिद्धि मनोरथ सहित।वास्तव में मानव जीवन की सार्थकता इन्ही चार वर्णों में कर्मानुसार है, अस्तित्व भी प्राणि श्रेष्ठ मनुष्य का मय पुरूषार्थ इन्ही में निहित है।जब हम शिक्षा -दीक्षा में अध्ययन-अध्यापन में होते हैं तो हम ब्राह्मण होते हैं जब हम समाज -राष्ट्र और स्वयं की रक्षा कर रहे होते हैं तो हम क्षत्रिय होते हैं और जब हम जीविकोपार्जन हेतु कृषि और व्यवसाय कर रहे होते हैं या कार्मिक होते हैं तो हम वैश्य होते हैं,और जब हम साफ-सफाई- सुचिता का शमन कर रहे होते हैं तो हम शूद्र होते हैं। श्रीमद्भागवत में स्पष्ट कहा गया है " जन्मना जायते शूद्रते " सारगर्भित आशय यह है कि अपने देश अपनी मातृभूमि पर हम सब केवल और केवल हिन्दुस्तानी हैं भारतीय हैं,और इस पर किसी ने अब तक कुठाराघात किया है तो वह है आरक्षण -व्यवस्था।अस्तु समग्र राष्ट्रहितैषी चिंतन ऐसी भेद-भाव वाली व्यवस्था को अनुचित समझता है।
आपका ही
नरेन्द्र नाथ त्रिपाठी
Excellent thinking towards real development of the country.
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