आजादी के बाद भारत में बहुत कुछ बदला लेकिन नहीं बदले मुस्लिम मन और मुद्दे ?

महापुरुष कुल विभूषित वीर भूमि भारत ने आजादी के बाद चुनौतियों को अवसर का पर्याय बनाकर प्रजातांत्रिक मूल्यों को विश्व के समक्ष आस्था और अध्ययन हेतु न‌ए कलेवर में प्रस्तुत किया। राष्ट्र ने सेवा क्षेत्र,कृषि क्षेत्र का विस्तार बुनियादी ढांचे के साथ किया, निरंतर वैज्ञानिक उपलब्धियां और शैक्षिक प्रगति प्राप्त की लेकिन कतिपय कारणों से चिकित्सा जगत में मांग और पूर्ति में औसत दर्जे की कमी को नजरंदाज नहीं किया जा सकता है।इसका यह मतलब भी नहीं है कि चिकित्सा क्षेत्र में काम नहीं हुआ विकास नहीं हुआ,हुआ लेकिन अनवरत जनसंख्यीय विकास के अनुरूप नहीं हुआ। दुर्भाग्यवश स्वतंत्र और गणतंत्र भारत के साक्षी आधार स्तंभ, भूमिका पुंज महापुरुष असमय काल कलवित  होकर इतिहास बनते गए,तत्कालीन क्रूर राजनीति के खूनी पंजे अध्ययन का विषय हैं। जाने-अनजाने हम अपनी वैदिक संस्कृति से सुदूर होकर पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण करते चले आ रहे हैं,जीवन मूल्यों की उपेक्षा और नैतिक पतन भी हमारी उन्नति के साथ कदमताल कर रही है,अभिशप्त राजनीति,सत्तासुख व वैभवी विलासिता ने और भ्रष्ट नौकरशाही ने महापुरुषों के त्याग और बलिदान को बलभर छलने‌ की मुहिम चला रखी है, लेकिन तमाम विसंगतियों के बावजूद भी मां भारती के लालों ने समर्पित भारतीय भाव जगत ने अंतरराष्ट्रीय फलक पर उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल की,यथा लगभग 75% साक्षरता दर,प्रबल राष्ट्रीय भावना,अनेकता में एकता का अद्भुत दर्शन,1971 में पाकिस्तान पर विजय,कारगिल विजय,परमाणु शक्ति संपन्नता,विश्व कप क्रिकेट विजय,अंतरिक्ष की दुनिया में श्रेष्ठतम,सूचना प्रोद्यौगिकी में अभूतपूर्व दस्तक, विविध क्षेत्रों में महिलाओं का सशक्तीकरण,औसत दर्जे की मजबूत अर्थव्यवस्था, मताधिकार की व्यापकता,उत्पादन सक्षमता,अति विशाल व्यापक रेलवे, श्रेष्ठ वायु सेवा,अद्भुत,अदम्य सैन्य शक्ति,मनरेगा मजदूर योजना,मिड डे मील योजना, आयुष्मान भारत योजना सहित और भी तमाम उपलब्धियां। मतलब भारत ने "जय जवान जय किसान से जय विज्ञान"तक की यात्रा की।इन उल्लेखित और तमाम उपलब्धियों में जन-गण का सहयोग मज़हब-संप्रदाय, जाति-धर्म के नाम से नहीं वरन केवल और केवल भारतीयों के नाम से जाना जाता है और जाना जाएगा,यही हमारा राष्ट्रीय चरित्र है।भारत विविधताओं वाला तमाम धर्म-संप्रदाय और जातियों का राष्ट्र है, राष्ट्र की उन्नति में सभी की उन्नति और सभी की उन्नति में राष्ट्र की उन्नति निहित है,एक ही सिक्के दो पहलू सरीखे। गौरतलब है कि मुख्य धारा से जोड़ने के लिए मुसलमान और तमाम हिंदू जातियों के उत्थान के लिए संविधान सम्मत विशेष व्यवस्था की गई है।यदि यह मान भी लिया जाए कि गैर सवर्ण,शोषण के कारण मुख्य धारा से वंचित रहे तो यक्ष प्रश्न यह है कि फिर मुस्लिमों की माली हालत क्यों?वो मुख्य धारा में शामिल क्यों नहीं? मुस्लिमों का अब तक भी अपेक्षित,आर्थिक, राजनैतिक और मानसिक विकास न हो पाना गहरी चिंता का विषय है।न तो उनके मन बदले और न ही मुद्दे,आज भी मुसलमान कहां और किस हालत में खड़ा है, जिम्मेवार कौन?ये सभी प्रश्न अनुत्तरित कत‌ई नहीं हैं उत्तर और समाधान स्वयं मुसलमानों के पास है।
       कटृरता का अध्ययन कट्टरता को निषेध मानता है,यह किसी भी मजहब विशेष के लिए आत्मघाती है, अच्छे-बुरे,वाजिब गैर वाजिब की सोंच खत्म कर देती है धर्मांध बनाकर अंधानुकरण के  लिए विवश कर देती है।जरूरत है सकारात्मक,शैक्षिक, प्रगतिवादी नजरिए को क्रियान्वित करने की, स्तरीय सुधार की जरूरत है,मादरे वतन की सलामती का ख्याल ,राजी-खुशी-खैरियत जरूरी है,बाकी काम खुदा पाक कर ही लेगा,कम से कम हम उस परमपिता परमेश्वर और खुदा पाक की चिंता न करें है जो जग चिंतक है, जिसने हमें बनाया हम उसे बनाने की बुद्धिमत्ता पूर्ण मूर्खता न करें,नाहक कोशिश न करें, हां बदले में हम उसका ध्यान,भजन,और इबादत करके इंसान बनकर कृतज्ञता प्रगट करें, शुक्रगुजारी अदा करें।स्वयं को धन्यानुभूतिक करें।
     मुसलमानों की माली हालत, दयनीय स्थिति के लिए तुष्टीकरण वाली घृणित राजनीति दोषी है और बड़ी वजह यह है कि मुसलमानों ने अपना राजनैतिक नेतृत्व हमेशा से मजहबी आकाओं और कुछ संकीर्ण स्वार्थियों के हवाले कर रखा है,ज़रा सोचिए आखिर पढ़ा-लिखा नव युवक मुस्लिम वर्ग नेतृत्व से वंचित क्यों है? अपवाद छोड़ दें तो यही हकीकत है,और इस हकीकत की कीमत भी मुस्लिम बदस्तूर चुका रहा है।आतंकी गतिविधियों की संलिप्तता ने, अनावश्यक उपद्रव और गैर जरुरी दख़लंदाज़ी ने मुसलामानों के प्रति जन मानस के नजरिए ने उन्हें अलग पहचान दी है।मौजूदा महामारी के दौर में तब्लीगी जमात के कारनामों ने आग में घी का काम किया है,उनकी करतूतों और अविस्मरणीय कारनामों ने देश -दुनिया में तब्लीगी जमात को जाहिल जमात के तमगे से नवाजा है।नापाक मंसूबों वाली जाहिलियत भी ऐसी है कि जाहिलियत खुद शर्मसार हो जाए,बीमारी छिपाकर बीमारी फैलाना जमात की मानसिक बीमारी का परिचायक है, चिकित्सकों और सुरक्षा बलों पर हिंसक जानलेवा हमले वाली जाहिलियत,महिला चिकित्सकों और कर्मियों से अभद्र व्यवहार और अश्लील हरकतों वाली जाहिलियत से जब जी नहीं भरा तो उन पर और अन्य लोगों पर,खाद्य पदार्थों पर थूकने वाली जाहिलियत से भी जब जी नहीं भरा तो खुद के मल-मूत्र से छिड़काव शुरू कर दिया,भगवान जाने अभी इनकी जाहिलियत में और क्या-क्या बाकी है?जाहिलियत की जद क्या है?अब मुद्दा यह बन रहा है कि कोई भारतीय जिसमें वो खामोश मुस्लिम भी शामिल हैं जो उक्त चर्चा का हिस्सा,उल्लेखित विश्लेषण का हिस्सा नहीं हैं,इन पर कैसे और क्यों विश्वास करे?नेक दिल,पाक ख्याली, राष्ट्रवादी भारतीय मुसलमान ही जानने योग्य,इस्लाम पाक के पैरोकार हैं, हैरानी होती है कि गैर मुस्लिम इस्लाम पाक का दुश्मन नहीं है,गैर मुस्लिम इस्लाम पाक को बदनाम नहीं कर रहा है बल्कि स्वयं भू जेहादी, तालिबानी मुस्लिम बिरादरी ही यह काम बखूबी कर रही है,इनके नापाक मंसूबे बेहद ख़तरनाक हैं।इनका प्रतिकार  जन-गण की जिम्मेवारी है मज़हब-संप्रदाय, जाति-धर्म से इतर।
    सदा सुभेच्छु 🙏🇮🇳🙏
      नरेन्द्र नाथ त्रिपाठी 

Comments

  1. बहुत सार्गर्भित लेख बहुत सुन्दर l

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    1. जी धन्यवाद 🙏 सदैव प्रेरक शक्ति का आकांक्षी।

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  2. भारत में मुस्लिम राष्ट्रवाद या यूं कहें कि दक्षिण एशिया में मुस्लिम राष्ट्रवाद, राष्ट्रीयता की राजनीतिक और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति है, जो दक्षिण एशिया, खास तौर पर भारत के मुसलमानों के धार्मिक सिद्धांतों और इस्लाम की पहचान पर स्थापित है। यह वाद भारत की आजादी के प्रति गौर दर्शाता है । यह राष्ट्रवाद बलीय होने के बावजूद शिकार हुवा और द्विजाति सिद्दांत की बीज भी पड़ गया।
    आजादी के बाद से, विभिन्न मुस्लिम समुदायों के भीतर संघर्ष का एक बड़ा सौदा हुआ है कि आज जटिल भारत में भारतीय राजनीति को परिभाषित करने वाले जटिल राजनीतिक और सांस्कृतिक मोज़ेक के भीतर कैसे कार्य करना है।
    निरंतर प्रगति को बनाए रखने में मुस्लिम दृढ़ता ने भारतीय राष्ट्रवाद के लिए कभी-कभी चरम समर्थन बनाया लेकिन विकास का मुद्दा जस का तस रहा।
    सभी क्रियाकलापो और तमाम कोशिशों के बावजूद यदि कुछ नहीं बदला तो वह अधिकांश मुस्लिमो की रवायत।मुस्लिम कट्टरवाद समर्थित मनोदशा और कुछ संकीर्ण मानसिकता और मजहब के नाम पर उनका उन्माद । किसी भी मजहब के लिए ये किसी जहर का काम करता है ।
    सभी पहलुओं का अगर एक साथ देखे और समझे तो सिर्फ़ नुकसान के इतर मुस्लिमो का कुछ भी नहीं हुआ और यदि इन सब मानसिकताओं जातीय और मजहबी उन्माद जैसी संकीर्णता से ऊपर उठना है तो प्रत्येक इकाई को विवेकशील हो कर सोचना पड़ेगा कि क्या सही है और क्या ग़लत ।क्या हम मजहब के नाम पर सिर्फ़ सिमट कर तो नहीं रह गए और कुछ नतीजों पर गौर करें जैसे 2006 की सच्चर कमेटी की रिपोर्ट तो यह सत्य समझ में जरूर आ जाएगा कि वो किस पायदान पर हैं।उन्हें अपने लिए मापदंड तय करने होंगे और विकासवाद का साथ मानसिक संकीर्णता और मजहबी उन्माद से ऊपर उठकर अपने विकास की नीव रखनी होगी।

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    1. ऐसे संवादमय विश्लेषण से लेख और लेखनी की सार्थकता सिद्ध होती है, सीखने और समझने की प्रतिपूर्ति होती है,आपका सुझाव अनुकरणीय है,सच्चर कमेटी का उल्लेख प्रासंगिक है 🙏🇮🇳🙏

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  3. भैया जी आपका लेखन बिल्कुल सराहनीय है आपने सभी परिदृश्य को लेख में सजाने का प्रयास किया है बहुत ही अच्छा प्रयास है इसके लिए बहुत-बहुत आभार बहुत-बहुत धन्यवाद लेकिन..... मिलेंगे तो बात करेंगे

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