'बचेंगी बेटियां तब तो पढ़ेंगी बेटियां!'
हे भगवान! उठा ले ऐसी कानून व्यवस्था शासन-प्रशासन /सरकार सरीखी छत्र छाया ।
सामान्यतः अधिकांश प्राणियों को अपनी संतान से अतिशय प्रेम होता,प्राणि श्रेष्ठ मानव को अधिकाधिक होता है,अपने प्राणों से भी प्रिय होती हैं संताने।लेकिन विडंबना कभी-कभी ऐसी होती है कि वही मात-पिता जब वृद्ध होते हैं और संताने जब बड़ी हो जाती हैं,दुर्भाग्यवश वही संतान जब कर्तव्य बोध से विमुख हो जाती हैं,यातनाओं की कारक बन जाती हैं,नराधम बन जाती है ,अपराध का पर्याय बन जाती है तो वही वृद्ध माता -पिता अपनी छत्र छाया संतान के लिए दुआ नही बद्दुआ मांगने लगते हैं,उनका अभागापन चीख -चीख कर कहता है कि 'हे भगवान इससे अच्छा तो हम निःसंतान होते'।लेकिन इससे भी उनका दारूण दुःख कम नही होता,और अनसुना करूण क्रंदन खुद के मरने की मन्नत करने लगता है।
चूंकि सरकारें और उनकी राज -काज संचालक प्रशासनिक व्यवस्थाएं जन-गण के लिए छत्र -छाया सरीखी होती हैं।अंतिम छोर के निरीह से निरीह शोषित-पीड़ित,वंचित के लिए न्याय स्वरूप सुरक्षा कवच
होती है।इस आश-विश्वास का कत्ल करने वाले सफेदपोश श्वेतवसन अपराधी वास्तव में हत्यारों से अधिक हत्यारे होते हैं, अपराधी होते हैं।उनकी जानी-अनजानी लापरवाही/भ्रष्टाचार जीते जी तमाम बार मार देती इंसान और इंसानियत को,कभी -कभी अवसाद और कुंठा जनित आत्म हत्या का भी कारण होती है।
वैसे तो अनगिनत ऐसी लाचारियां बेबस इंसानों की दास्तानें,पीड़ितों का करूण क्रंदन किस्से-कहानी बनकर स्मृति पटल के कोनें में पड़े होते हैं या भुला दिए जाते हैं।या फिर बीते समय की बातें हो जाती हैं।लेकिन जरा सोचिए!जीवित पीड़ितों पर उनके सगे संबंधियों पर क्या बीतती होगी,जाहिर है कि वो जीकर नहीं मरते बल्कि मर-मर कर जीते हैं।यह भी सोचिए कि रसूख और धनबल के क्रूर हांथो से रौंदे इन पीड़ितों के लिए,संविधान और उसकी प्रस्तावना के क्या मायने होते होंगे?कानून व्यवस्था और सरकारों की आत्म मंडना से कितनी चिढ़ होती होगी उन्हे?इस सच को भी स्वीकार करना ही होगा कि जन सामान्य या पीड़ित के मन में खौफ होता है पुलिस का जबकि अपराधी बेखौफ होते हैं,इतना ही नहीं गजब की मित्रता भी होती अपराधी और पुलिस में।ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि वाले अपराधियों का सम्मान-सत्कार भी गहरी चिंता का विषय है।पुलिसिया कारनामों की ख्याति का गुणगान जन-जन की जुबान बखूबी करती है।
ऐसे ही एक कारनामे का उल्लेख वेदना जनित आक्रोश का जिक्र प्रासंगिक है,जिसने लिखने के लिए मजबूर कर दिया,सच तो यह है कि हमने कुछ लिखा नहीं 'संवेदना' ने लिखाया है।_____
तेरह वर्षीय एक मासूम चहकती रहती है,बालपन के स्वाभाविक आनंद में भविष्य के सपने बुनने में रत रहती है,अपनी सतरंगी दुनिया में मस्त रहती है अपने माता -पिता से दूर महानगर में अपने सगे संबधियों के पास पढ़ रही होती है,तीज-त्यौहार कभी कभार या अवकाश के दिनों में आती रहती थी अपनी मिट्टी से मिलने अपने गांव अपने माता -पिता घर परिवार के पास।चूंकि वह वर्ण व्यवस्था के अंतिम चौथे क्रम से ताल्लुक रखती है,संभवतः इसी कारण गांव के नराधम,नर पिशाच,वहशी दरिंदों को उसकी चंचलता और सुंदरता खटक जाती है,और फिर एक दिन गांव में बसंत पंचमी का मेला उसके जीवन का पतझड़ बन जाता है,मेले की चकाचौंध में गांव के ही दबंग,रसूखदार ऐतिहासिक अपराधी की अपने तीन नाबालिग साथियों सहित निशाने पर होती है ये मासूम उसे चुपके से बहला -फुसलाकर उठा लिया जाता है।माता-पिता परिवारी जन पंहुचते हैं स्थानीय थाने में लेकिन पुलिस ऐक्शन नहीं आप्शन मोड में ही रहती है।खैर तीन दिन बाद बदहाल स्थिति में मिलती है मासूम।और आप बीती जो बताती है,उसे सुनना भी साहस की बात है,संक्षेप में यह है कि एतिहासिक पृष्ठ भूमि की पैदाइश दबंग और उसके दो साथियों ने दिन-रात उसके साथ दुष्कर्म किया।भारी मन से लोक लाज की भी चिंता से परे माता -पिता के अथक प्रयासों से मेडिकल होता है,और एफआईआर भी दर्ज होती है,जिला न्यायालय में मासूम पीड़िता के कलम बंद बयान भी।इस बीच मासूम पीड़िता के माता -पिता को जान माल की धमकियां शुरू हो जाती हैं,बच्ची के साथ और अधिक भयानक वारदात की भी धमकी मुख्य आरोपी सरगना के गुर्गों से मिलती है इस मनोरथ के साथ कि थाना-पुलिस -कचहरी को दिमाग से निकाल दे पीड़ित परिवार। लेकिन लेकिन मासूम बलात्कार पीड़िता के माता-पिता को न्याय पाने का भ्रम दौड़ाता रहा दर -बदर।येन -केन -प्रकारणेन मुख्य आरोपी/अपराधी के दो साथी गिरफ्तार कर लिए जाते हैं,जबकि मुख्य आरोपी/ अपराधी दबंग कानून की छाती पर मूंग दर रहा है।इधर पीड़ित की आवाज बुलंद करने को कुछ मीडियागिरी भी होती है,पीड़िता के अभागे बेचारे माता -पिता की बाइटें भी ली जाती हैं।और फिर शुरू होता है पुलिसिया विवेचना का बद्स्तूर खेल,इस खेल में मुख्य अपराधी/बलात्कारी के पास जीतने के लिए सब कुछ होता है,लेकिन मासूम पीड़िता और मां-बाप के पास हारने को कुछ नहीं।पीड़ित पक्ष कप्तान से मिलता है,स्थानीय विधायक से मिलता है मिन्नते करता है,फरियाद करता है।और फिर राजधानी में तमाम आलाधिकारियों से मिलता है,इतना ही नहीं एकाध मंत्री-संत्री से भी मिलता है,और सत्ता पक्ष के कुछ बड़े चेहरों/ माननीयों से भी मिलता है लेकिन इन मुलाकातों में पीड़ित पक्ष को मिलता कुछ नही है।इधर विवेचना के खेल में मुख्य आरोपी ऐतिहासिक अपराधी दबंग सुनियोजित तरीके से जीत जाता है,मतलब विवेचना अधिकारी उसे दोष मुक्त करके अपनी कर्तव्यनिष्ठा और जमीर की बलि देकर ,चारण वंदन सहित माल्यार्पण हेतु महापुरूष को खोज रहे हैं।इस पूरे प्रकरण में स्थानीय विधायक की भूमिका संदिग्ध और पक्षपाती होना स्वाभाविक है,गौरतलब हो कि माननीय विधायक जी को जब भी मौका मिलता है,ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि के कुनबे को और मनोरथ पूर्ण करने वाले पुलिस अधिकारियों/विवेचकों की महिमामंडन/गुणगान जरूर करते हैं।बलात्कार पीड़िता मासूम और परिवार को न्याय मिलेगा या फिर अपराधिक सौगात?बेटी बचेगी? बेटी पढ़ेगी?राज किसका है?पूरे कुंए में भांग पड़ी है क्या?इन प्रश्नों के उत्तर आपको/तथाकथित सभ्य समाज को खोजने हैं।
प्रार्थना कीजिए न्याय के लिए चूंकि पीड़ित पक्ष ने जिद कर रही है जीतने की।बिटिया ने हिम्मत कर रखी है हराने की,सजा दिलाने की,खुद को खड़ा रखने की।संवेदनाएं स्वयं नतमस्तक हैं हिम्मत की हद और जीत की जिद के सामने।--------------
सहर्ष सूच्य है कि प्रार्थनाओं का प्रभाव पीड़ित पक्ष के लिए वरदाई सिद्ध हो रहा है,हुआ यह है कि तमाम कोशिशों के बाद क्षेत्राधिकारी पर जांच बैठाई गई है और उनके द्वारा की गई विवेचना को खारिज करके नए अधिकारी की नियुक्ति कर दी गई है।लेकिन अभी न्याय के लिए और प्रार्थनाओं की आवश्यकता है।__________________
नरेन्द्र नाथ त्रिपाठी
Aise darindo Ko faasi honi chahiye inko kadi se kadi saja milni chahiye
ReplyDeleteआपकी आक्रोशाभिव्यक्ति अभिनंदनीय है,लेकिन सजा तो तब मिलेगी जब अपराधी सिद्ध होगा,जबकि विवेचना में दोषमुक्त करके महापुरूष बना दिया जाता है,कानून के उपहास सहित।
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