बंधक बनी दिल्ली !सरकार बनाम तथाकथित किसान।
किसान भगवान है,दरिद्र नारायण की तरह जबकि किसान न तो भगवान है और न ही दरिद्र कोई नारायण है लोक व्यवहार की दुनियावी किताब में।किसान को अन्नदाता की औपचारिक मानक उपाधि मजाक महज है।सच में दाता तो माननीय सरकारें और उनका तंत्र होता है,प्रजातांत्रिक अवधारणा यह कि "जनता का जनता के लिए जनता द्वारा शासन जबकि दुर्भाग्यवश व्यवहार में कुछ लोगों का कुछ लोगों के लिए कुछ लोगों द्वारा शासन चरितार्थ होता है।जातियों का अत्याधुनिक वर्गीकरण अमीर- गरीब,शोषक और शोषित पर केन्द्रित हो रहा है।लेकिन इन विरोधाभासों के लिए शोषक से अधिक शोषित जिम्मेदार है मतलब "आ बैल मुझे मार चरितार्थ है"।प्रतिनिधित्व एक ऐसा आभासी सच है जो झूठ बनकर महिमामंडित होता है सम्मानित भी,स्थानीय प्रतिनिधित्व की महिमा अवर्णनीय है।
असल में असल किसान आशा की फसल और नोन-तेल-लकड़ी से नहीं लड़ पा रहा है तो सरकार से क्या खाक लड़ेगा? तो फिर यक्ष प्रश्न यह है कि आखिर लड़ कौन रहा है?और लड़ क्यों रहा है?झूठ वाला सच तो यह भी है कि बहुतेरे धन्नासेठ/नौकरशाह और नेता आयकर से आंख मिचौली के लिए बतौर किसान दर्ज हैं।चूंकि आज भी वास्तविक किसान जिन्दगी जी नहीं रहा बल्कि ढो रहा है,मजदूर तबके का किसान जिन्दगी को झेल रहा है,ऐसे किसानों को झासा देना सभी के लिए आसान है जिनकी सामान्य जरूरतें आसमान हैं।
आन्दोलनों का भी अपना एक गौरवान्वित इतिहास है लेकिन समसामयिक तथाकथित 'किसान आन्दोलन' की सार्थकता कतिपय कारणों से संदिग्ध ही रही।६२ दिन की लंबी आयु के बाद आन्दोलन का स्वास्थ्य बिगड़ा और मिजाज बिगड़ा शायद आन्दोलन के आकाओं का लक्ष्य ही था झगड़ा।संविधान सम्मत मांग अपनी जगह,अहिंसक विरोध प्रदर्शन अपनी जगह,संकल्प सहित अनशन वंदनीय है।सरकार से आंख मिलाना,सरकारी नीतियों का विरोध करना सर्वमान्य होना चाहिए जब उद्देश्य सुस्पष्ट हों,कल्याणकारी हों लोक हितैषी हो।इस तथाकथित 'किसान आन्दोलन' के कारक और सरकार की वकालत को समझना हथेली पर जौ उगाने जैसा है।न तुम कम न हम वाली तर्ज पर सरकार बनाम किसान लगभग सब ठीक चल रहा था।लेकिन गणतंत्र पर्व के मौके पर माहौल और शौहार्द बिगाड़ने का कलुषित मनोरथ निन्दनीय नहीं अपराधिक है।लाल किले पर चढ़ाई अक्रामता है कबीलाई संस्कृति की पोषक है।अपना झंडा -डंडा गाड़ना राष्ट्रीय प्रतीकों का अक्षम्य निरादर है ऐसे निरादरों को राष्ट्र द्रोह समझकर दंड क्यों न दिया जाए?दोषी कोई भी अपनी जवाबदेही से कतई बचने न पाए शांतिपूर्ण 'ट्रैक्टर परेड' की अनुमति मांगने वाले या अनुमति देने वाले।इस अपराधिक घटनाक्रम को प्रशासन और सुरक्षा व्यवस्था की आंशिक विफलता भी मानना चाहिए माननीय सरकार और माननीयों को।समाधान रूप में सरकार और तथाकथित 'किसान आन्दोलन' प्रेरकों को "खीचहु चाप मिटहिं संदेहू " चरितार्थ करना चाहिए मतलब सरकार को खुद के बिल से झांकने का मौका मिलना चाहिए यदि बिल में किसानों का अहित निहित है तो सुधारने का मौका दिया जाए जीएसटी की तरह।अन्यथा तो फिर जनता-जनार्दन अमूर्त महाआन्दोलन से संदेश नहीं फैसला देने के लिए सदा सक्षम है।
विचारार्थ 🙏
नरेन्द्र नाथ त्रिपाठी
@saytonarendra
बिल्कुल सत्य है उसी पर विचार के लिए सरकार बातचीत करना चाहती है।आप यह लेख वास्तविकता की ओर अग्रसर है।
ReplyDeleteधन्यवाद भाई प्रेरक संवाद के लिए।
Deleteसर्वथा उचित और संवेदना का समुच्चय बोध कराते हुए आपने जो सरकार और सरकारी तंत्र का आइना प्रस्तुत किया है, निस्संदेह समसामयिक परिस्थितयों में आपकी
ReplyDeleteवैचारिकी का दृष्टिकोण न केवल राष्ट्रहित से ओतप्रोत है अपितु किसान और उनके हितार्थ से भी। किसानों की परिशिष्ट का जो हितबोध है वह अकथनीय है और जिस व्यापकता को आपने आत्मीय बोध कराया है वह सरकारो का कतिपय कारण बोध होना ही श्रेयस्कर है।
'वैचारिक संपदा ' के रत्न रूप सुधी संवादक अग्रज अध्ययन और और प्रेरक संवाद के लिए आभार सहित संवादवाद।
Deleteबहुत सुन्दर लेख। वर्तमान स्थिती को उजागर करती आपकी लेखनी।जय हो।
ReplyDeleteधन्यवाद आपको,जय हमारी संस्कृति की जय हो सनातन की जय हो वतन की।प्रेरक संवाद के लिए आभार।
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