'कट्टरता' घातक है!अस्तु त्याज्य है।
'कट्टरता' की प्रासंगिकता अध्ययन और शोध का विषय होना चाहिए,कट्टरता क्या दे सकती है और बदले में क्या ले सकती है?धार्मिक कट्टरता उन्माद,विद्वेष,नफरत और अति के चरमोत्कर्ष पर हिंसा का पोषण भी करती है,कबीलाई संस्कृति का समर्थन करती है।अपने धर्म अपनी जाति और स्वदेश से अनुराग होना चाहिए गर्व होना,निज मान -मर्यादा का ध्यान होना चाहिए,प्राणि श्रेष्ठ मनुष्य जहां से भी स्वयं को जोड़े वह भी गौरवान्वित होना चाहिए ऐसे सम्यक कर्म होने चाहिए। सदैव सनद रहे कि 'सत्य के साथ किसी भी तरह का अनापेक्षित व्यवहार भी उसकी महत्ता और प्रभाव को रंच मात्र भी प्रभावित नहीं कर सकता है' सत्य का अक्षय होना ही सत्य की प्रमाणिकता और सर्व व्यापी प्रभाव की पुष्टि करता है'।सत्य ही साश्वत है,सत्य में लीपापोती का प्रयास सदा विफल ही रहा है और सदा विफल ही होना ईश्वरीय विधान में सुनिश्चित है।इतिहास साक्षी है हमारी ही भारतीय सभ्यता और संस्कृति के साथ कितना छल -प्रपंच किया गया नराधमों द्वारा कुचलने की कलुषित कोशिश का परिणाम भी जग जाहिर है।मानव धर्म सर्वोपरि है बाद इसके किसी धर्म का अभिप्राय समझने और समझाने की विषय वस्तु है।जिस धर्म/संप्रदाय/जाति ने मानव धर्म आत्मसात नहीं किया मानवीय मूल्यों से जो परे है वह धर्म तो ही नहीं सकता,भ्रमवश यदि वह धर्म होने का स्वांग रच रहा है तो कालखंड में उसका समूल विनाश सुनिश्चित है।
मानव धर्म से आच्छादित,मानवीय मूल्यों के संवर्धक सभी धर्म/संप्रदाय सदा पूज्नीय है वंदनीय हैं किसी की श्रेष्ठता का यह मतलब कतई नहीं कि दूसरा कोई निम्न है,किसी की अच्छाई का यह मतलब कतई नहीं कि दूसरे में बुराई है।एक अच्छाई को सिद्ध करने में बुराई का सहयोग(माध्यम)अस्वीकार होना ही चाहिए ।वैज्ञानिक या गणितीय किसी तथ्य का कितना भी अपमान कर लें लिखित दस्तावेजों/पुस्तक को हम चीर डालें फाड़ डालें या जला डालें तो क्या उसके सत्य और प्रभाव को प्रभावित कर सकते हैं? नहीं बिल्कुल नहीं रंच मात्र भी प्रभावित नहीं कर सकते।
आइए अब विषयोन्मुख होते हैं,भारत भूमि पर घटित कारनामों का ख्याल करते हैं इनके मूल में जाने की जरा कोशिश करते हैं,हिन्दू -मुस्लिम,सिक्ख-ईसाई इत्यादि के दंगों और जान-माल के नुकसान का आकलन मात्र करिए,वास्तव में यदि हम मनुष्य हैं तो आहत होना स्वाभाविक है करूण-क्रन्दन से आंख ही नहीं ह्रदय भी भर जाएगा।उल्लेखनीय है 'कट्टरता' और आंड में कलुषित/नापाक इरादे।जिससे कोई धर्म/संप्रदाय/मजहब/जाति अछूती नहीं।यक्ष प्रश्न यह है कि अधर्मरत होकर धर्म की रक्षा कैसे संभव है? 'कट्टरता' मात्र दिखावा है,छल है,प्रपंच है और सही मायने में अस्तित्व विहीन होने का भय है।इस मानव कल्याणार्थ,समाज कल्यार्थ स्वदेश रक्षार्थ "कट्टरता' का शमन अब जरूरी है,राजनैतिक पोषण/तुष्टीकरण और दखलंदाजी पर अपरिहार्य अंकुश/विराम जन-गण(भारत वासियों) की नैतिक जिम्मेदारी है।
कमोवेश देश के कई प्रदेश और प्रदेश के कई क्षेत्रों में प्रायोजित अराजकता और बर्बरता प्रगट हो रही है।हिंसा बर्बरता और तालिबानी सोंच के समर्थकों को भी आंड़े हांथों लेने की बेहद जरूरत है।जो धर्म सभी लोगों की सुख-शान्ति-समृद्धि के हेतु हैं उन्ही के लिपिबद्ध पुस्तकों और प्रतीकों के कथित आरोप अपमान/निरादर के सहारे सीनातान वाली हिंसा से न केवल कानून और संविधान का मर्दन होगा बल्कि शान्ति व्यवस्था,सद्भाव और राष्ट्रीय एकता एवं सुरक्षा पर गहरा संकट भी प्रबल संभावित है।
कथित/अपुष्ट 'धार्मिक ग्रन्थ' के अपमान के संबंध बस इतना कहना है कि 'क्रूरतम हत्यारों ने अमुक ग्रन्थ पढ़ा ही नहीं पढ़ा तो अध्ययन नहीं किया और अध्ययन भी किया तो अनुसरण नहीं किया'।'कट्टरता' सम्मान का नहीं शमन का विषय है,आदर नहीं प्रतिकार का विषय है।भक्ति भाव,आराधना,आस्था और धर्मानुकूल आचरण सदा पूज्नीय है वन्दनीय है,अनुशरणीय है।
चिन्तनार्थ 🇮🇳
नरेन्द्र नाथ त्रिपाठी
प्रेरक लेख ।
ReplyDelete🙏
धन्यवाद 🙏प्रेरक टिप्पणी के लिए।
Deleteप्रवाह-पतित होकर बहते जाना स्वत्वहीन व्यक्तित्व का लक्षण है। मूल्यनिष्ठ संकल्प से स्खलित, आत्मविश्वास से विरहित, साहस और संकल्प से शून्य तथा मेरुदंडहीन व्यक्ति हवा के रुख की ओर मुख करने में ही सुविधा का अनुभव करते हैं। ऐसे बहुत कम लोग होते हैं जो मूल्यों, आदर्शों, भावनाओं और मंगल विधान की प्रेरणा से समस्त अवांछित अवरोधों को चुनौती देने के लिए परिकरबद्ध हो जाते हैं। बर्बरता अर्थात चरित्र के धुंधलके से उपजा बुद्धि के ऊपर पड़ा पर्दा। विवेकशुन्य हो जाना और निरंकुश हो कर प्राणघाती हो जाना मानुषिक अव्यय तो कदापि नहीं
ReplyDeleteमानव धर्म ही प्राणिमात्र से विद्वेष , घृणा और ईर्ष्या को नकार देता है। अस्तु मानव के साथ धर्म का युग्म ही तब संभव है जब वह मर्यादित हो अन्यथा नहीं हो सकता।
दंगो और जानमाल का जो क्रूर खेल है वह मनुष्य की विद्रूपता को भी दो कदम पीछे ढकेल देता है। धर्म और जाति का कलुष,कट्टरता की ओट में अत्यंत भयानक है और परिणाम तो अकल्पनीय है। किसी भी धर्म यदि वह धर्म है तो अमानुषिक कृत्यों को तृण मात्र भी स्वीकार नहींकर सकता। अस्तित्व की रक्षा और धर्मसंगत होना ही वाहक धर्म की प्रतिष्ठा है।
त्रिपाठी जी की समग्र चिंतन की विधा, तार्किक दर्पण और विसंगतियों का पारदर्शी मूल्यांकन सदैव ही राष्ट्र और राजनीतिक गलियारों की तथाकथित व्यवस्था को आइना दिखाता रहा है और मार्गदर्शन भी।
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