तालिबानी कारनामों की कोशिश!
'इस्लाम' और तालिबान विरोधाभासिक हैं,इस्लाम तालिबान की पहचान न बन पाया और तालिबान इस्लाम का अनुयायी हो न पाया।हां 'तालिबानी सोंच' एक जुमला जरूर बन गया गौरतलब यह है कि वही तालिबानी कारनामे आज सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत में आज़माने की कोशिश की जा रही है। जरा सोचिए! जुम्मे की नमाज के बाद कमोबेश पूरे देश में लगभग चौदह राज्यों में व नब्बे जगहों पर एक साथ हिंसक प्रदर्शन आगजनी तोड़फोड़ व पथराव को अंजाम दिया जाना कोई संयोग तो हो नहीं सकता हां प्रयोग जरूर है,इसका मतलब यह है की कारनामे करवाए जा रहे हैं,अनावरण भी होगा चूंकि 'कागजी लिबाज में कोई खुद को बचाएगा कब तक,मौसम भी लिहाज करेगा कब तक,झमाझम बारिश बख्शेगी कतई नहीं।इंशाअल्ला नापाक मंसूबों को कामयाबी न मिली है और न मुमकिन है चूंकि वतन-ऐ हिंद की मिट्टी ही ऐसी है जो नापाक मंसूबों को खाक कर देती है,भारत केवल भू भाग नहीं वरन यहां के निवासियों के लिए मां है भारत मां है,जीवित संरचना है,स्पन्दित आराधना है पूजनीय अर्चना है।यहां सकल भारतीयों में मौलिकता यह है कि सभी के मूल में भारतीयता है।सभी मिलकर एक सुर एक आवाज में कहते हैं "सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा" सारे जहां की अच्छी-बुरी निगाहें भारत पर रहना स्वाभाविक है,कुछ तो बात है हमारे भारत में।भारत की उदारता,सहिष्णुता,संप्रभुता जग जाहिर है तो प्रतिरक्षार्थ अक्रामकता भी परिचय की मोहताज नहीं है,खैर समसामयिक मसला घरेलू है लेकिन दखलन्दाजी बाहरी है अस्तु 'सबसे परम् राष्ट्र धर्म' राष्ट्रहित की रत्ती भर बात समझाने के लिए पहाड़ भर दंड का प्राविधान जरूरी है समय की मांग है,भारतीय संविधान की 'प्रस्तावना' का अध्ययन प्रासंगिक है,'संविधान' का ध्यान अपरिहार्य है,कानून को हांथ मे लेने की गुस्ताखी तो दूर हिमाकत पर ऐसी सजा सुनिश्चित हो जो नजीर सिद्ध हो। बद्स्तूर पाकिस्तान के कारनामें कथित इस्लामिक पैरोकारों को खाड़ी देशों को क्यों नहीं दिखते?जबकि उन्ही आंखो से शिवलिंग की जगह फव्वारा खूब दिखता है,टी वी बहस दिखाई-सुनाई पड़ती है लेकिन कराची में मन्दिर विध्वंस और अनुयायियों का शोषण न सुनाई पड़ता है न दिखाई। 'इस्लामिक सहयोग संगठन' मतलब 'ओआईसी' गूंगा-बहरा-अंधा क्यों हो जाता है? कौमी शख्सियतों को समझना होगा समझाना होगा फजूल दखलंदाजी का माकूल जवाब देना होगा। सच की ख्वाहिश फरेब के वास्ते।मुकम्मल फरेब न सच के सामने।।दास्तान-ऐ मुन्तशिर के गवाह । दर्र -ऐ दख्त दीवार के सजदे ।।
।मामला एक टीवी डिबेट का नहीं मसला नापाक मंसूबों के ईंधन से जल रही उस मशाल का है जो प्रकाश पुंज को धूमिल करने की कोशिश कर रही है,लेकिन कहने को तो मशाल ही ही है इससे पहले कि कुछ अनापेक्षित इतिहास की मिशाल बने संभलना होगा सबको साथ चलना होगा 'अप्प दीपो' बनकर चलना भी होगा जलना भी होगा। मर्यादा आग्रह की विषय वस्तु है।संवाद में अभद्रता/अपमान वह भी ईश/आराध्य के प्रति न केवल संवाद के स्तर को गिराता है बल्कि संवादियों की परवरिश का भी परिचायक होता है।सार्वजनिक जीवन मे वाणीं संयम अपेक्षित ही नहीं अपरिहार्य शर्त सरीखी है अन्यथा की स्थितियां विघटनकारी सिद्ध होती हैं।सूरज पर थूकने की निरानिर मूर्खता को बुद्धिमानी सिद्ध करने की कोशिश भी उपहासिक और विकटतं मूर्खता है।अभिव्यक्ति की आजादी में ईश/आराध्य निन्दा,राष्ट्रीय प्रतीकों का अपमान और राष्ट्रीय संप्रभुता पर आंच कतई सम्मलित नहीं होना चाहिए भले कानून बदलना पड़े या संवैधानिक समीक्षा करके अनुच्छेद जोड़ना पड़े।'देश का नुकसान हमारा नुकसान और हमारा नुकसान देश का नुकसान' यह रत्ती भर बात समझाने के लिए पहाड़ भर प्रहार जरूरी है समय की मांग है। मर्यादा आग्रह की विषय वस्तु है।संवाद में अभद्रता/अपमान वह भी ईश/आराध्य के प्रति न केवल संवाद के स्तर को गिराता है बल्कि संवादियों की परवरिश का भी परिचायक है।कट्टरता स्वयं एक उन्मादी आग है,निज धर्म/मजहब के लिए भय की परिचायक है कट्टरता सिद्ध करती है कि अनुयायियों को उसके पतन का भय है जबकि धर्म/मजहब ऐसा होना चाहिए कि जानने और समझने वाले गैर अनुयायी भी अनुरागी हों जााएं न कि न कि उसके प्रति जुगुप्साजनित उपेक्षा और घृणा घर कर जाए।सही मायने में ईश्वर को मानने वाले अल्लाह या किसी सर्वमान्य लोकहितकारी प्रतीक का निरादर/निन्दा कर ही नहीं सकते।चूंकि धर्म/मजहब हम इंंसानों ने बनाया जबकि हम इंंसानों को उसने बनाया जिनके लिए हम लड़ते हैं वैमनस्यता पालते हैं यही विरोधाभास और विड़बंना प्राणि श्रेष्ठ मनुष्य की सबसे बड़ी बीमारी है।सारगर्भित आशय यह है कि जो लोक कल्याणकारी है,जिसमें 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' की निहित पैरोकारी है वही धर्म है वही मजहब है जो धारण करने योग्य है।
🇮🇳राष्ट्रहितार्थ 🇮🇳
नरेन्द्र नाथ त्रिपाठी
🙏🙏🙏
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